दार्शनिक होने के साथ-साथ कवि होना एक दुर्लभ संयोग है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ एक महान दार्शनिक होने के साथ-साथ एक महान कवि भी हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा रचित साहित्य वर्तमान युग की भयानक समस्याओं जैसे- तनाव, संवेदनशीलता की कमी, उत्तेजना, अवसाद, आतंकवाद, हीन भावना, घृणा, कपट, अनैतिकता, प्रमाणिकता का अभाव एवं अभाव के समाधान में रामबाण की तरह अत्यंत प्रभावी सिद्ध हो रहा है। शांति। आचार्य महाप्रज्ञ के ग्रन्थों में प्रयोग एवं प्रशिक्षण द्वारा विभिन्न समस्याओं का समाधान बताया गया है। उनका लेखन किसी के जीवन का सर्वांगीण विकास करता है और इस प्रकार मानवता के लिए एक महान सेवा प्रदान कर रहा है। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से जो योगदान दिया है, उसके लिए मानव जाति हमेशा उनका ऋणी रहेगी।
किताबों कि अगर बात करें तो ना जाने ऐसी कितनी ही रचनाएँ होंगी जिनका अध्ययन हम इंसानों ने अपने सांयकाल में किया होगा। परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि एक ऐसी भी किताब है जिसे आज तक किसी भी इंसान ने ना समझा ना अध्यन किया। इस किताब में इस दुनिया कि सारी समस्यों का समाधान है और इस महाग्रंथ को आज तक कोई भी लेखक या कवी पूर्णतः समझ नहीं पाया। यह एक ऐसी किताब है जो स्मरणातीत काल से उपेक्षित रही या फिर ऐसा भी कह सकते हैं कि सामने होते हुए भी कोई उसके रहस्यों पे दर्शन दे ही नहीं पाया। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने इस किताब के माध्यम से हमें इस अनोखी किताब से अवगत करवाया, और यह किताब है हम सबका का अपना शरीर। आश्चर्यचकित होने कि ज़रूरत नहीं, क्योंकि यह सत्य अनंत तरीकों से कहा जा चूका है और ज्ञानदर्शियों ने इससे अनुभव भी किया है।
इस किताब में हमारे मन में उत्पन होने वाले कई सवालों का जवाब दिया गया है, जैसे कि:
हमारा शरीर हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है, इस चीज़ का आभास होना हर मनुष्य के लिए अति आवश्यक है। इंसान इस शरीर के बाहरी रूप को देखता है, परखता है, समझता है, अध्यन करता है। यहाँ तक कि आज कल के चित्सिक भी इस शरीर का अध्यन करते करते काफी गहरायिओं को समझ चुके है। परन्तु दुःख कि बात तोह यह है इस शरीर कि असीम शक्तियों का प्रयोग हमें का बताया गया और ना समझाया गय। हमारे शरीर कि शक्तियां तीन स्थानों में हैं- गुदा, नाभि और कंठ। हमारी शक्ति के यह तीन स्तोत्र हैं और देखा जाये तो शक्ति नीचे से ऊपर जनि चाहिए परन्तु असलियत में शक्ति ऊपर से निचे जाती हैं और नीचे के स्तोत्र से बहार चली जाती है। इसकी वजह से इंसान अपनी शक्ति खोकर प्रताड़ना का जीवन जी रहा है। इस दुविधा का इलाज भी केवल एक ही है- संयम। हमें यह समझना बेहद ज़रूरी है कि यदि हम एक ऐसा जीवन जेएंगे जिसकी कोई हद्द नहीं, सीमा नहीं, नियंत्रण नहीं तोह एक तरीके से हम अपनी सिमटी हुयी शक्ति को संपन कर देंगे। यहाँ तक कि, हमारे शरीर का आध्यात्मिक मूल्यांकन है इस ऊर्जा या शक्ति कि रक्षा करना,विकसित करना और ऊर्जा के स्तोत्र को मोड़कर नीचे से ऊपर भेजना।
हमारी प्राण कि शक्ति काम करती हैं हमारी प्राणशक्ति के आधार पर। यदि प्राणशक्ति काम करना बंद करदे तो हमारे शरीर के बाकि सारे क्रियां रुक जाएँगी। मूलतः हमारी प्राणशक्ति हमारी बाकि सारी शक्तियों और क्रियाओं का आधार बनती हैं। अब मुद्दा यह भी है क्या इस प्राणशक्ति का सदुपयोग भी कितना ज़रूरी है। यही हमारे लिए हिंसा और अहिंसा का पाठ भी है। एक हिंसक इंसान सोचता है कि दूसरों कि शक्तियों को कैसे खर्चा करूँ,परन्तु यह सोचने में वह अपनी शक्ति खर्च कर देता है। दूसरों कि निंदया-चुगली करने वाले, ईर्ष्या करने वाले, जलने वाले व्यक्ति अपनी शक्ति के भंडार का दुरूपयोग कर देते हैं। वहीँ एक अहिंसक व्यक्ति अपनी शक्ति का सदुपयोग करेगा जग कल्याण में। अर्थात अहिंसा के बिना कोई शक्तिशाली बन ही नहीं सकता।
यह प्रशन तो हम सबके मन में कभी ना कभी उठा ही होगा कि आखिर सत्य कि परिभाषा क्या है? एक बार आचार्य महाप्रज्ञ जी ने भी इस प्रशना का उत्तर ढूंढ़ना चाहा पर कोई भी व्याख्यान व्यावहारिक नहीं बन पा रही थी। फिर एक शिविर के दौरान सत्य कि एक परिभाषा उत्पन हूई जो थी, नियम। सत्य का अर्थ है नियम। यह संसार नियमों से बंधा हुआ है। हर एक वास्तु, हर एक व्यक्ति चंद नियमों के अनुसार चलता है। यह नियम एक नहीं पर कई हज़ार भी हो सकते हैं। अनेकांत का सिंद्धांत हैं नियमों को जानने का सिंद्धांत। देखा जाये तो हर वैज्ञानिक चीज़, के भी नियम हैं जिनके अंतरगत वह व्यव्हार करते हैं और वही उस वैज्ञानिक चीज का सत्य होता है। अब सवाल यह उठता है कि यदि हर चीज़ के नियम ही सत्य है तोह असत्य कहाँ है? असत्य वहीँ पनपता है जहाँ भीतर और बाहर में दुरी रह जाती हैं। जब इंसान अंदर सोचता कुछ और है और बाहर दर्शाता कुछ और है वह असत्य को जन्मा दे देता है। आज सवत्र द्वन्दा है। भीतर के प्रकंपन कुछ और प्रकार के हैं और बाहर कुछ और दर्शाया जा रहा है। यही भीतर और बाहर कि दूरी मिटाना ज़रूरी है। यह दुरी तब मिट सकती है जब दृष्टिकोण विवेकी हो।
सारांश में यदि कहे तो हमारे अंदर वह सारी खुभियाँ छिपी होती हैं जो एक व्यक्ति को लगती है महानता को पाने के लिए। ज़रूरत है तो केवल स्वयं का अध्यन करने कि। हमारी शरीर कि शक्तियां अंधकर में उस द्वीप कि तरह हैं जो घने काले अँधेरे में उजाला कर सके बास ज़रूरत है तो उसके सही दिशा में संचालन कि और उसके सदुपयोग कि। आखिर ऐसी कितनी कि क्रियां हैं हमारे रोज़मर्रा में करि जाने वाली जिन्हे करते वक्त हमने सोचा ही नहीं कि इनका प्रभाव हमारे ऊपर इस हद तक हो सकता है हमारी शक्ति ऊर्जा बढ़ सकती हैं। हमारे अंदर ऐसी करि छिपे हुए रहस्य है जिनको जानकर हम अपने अंदर छिपी ऊर्जा को बढ़ा सकते हैं और इन्हे ढूंढ़ने का रास्ता है प्रेक्षा ध्यान में। अपने आप को एक बिंदु पे केंद्रित कर हम अपने स्थूल शरीर से समीरण कर पाएंगे। कुण्डलिनी जागरण का रास्ता भी यही है और शरीर दर्शन के अन्य कई पड़ाव इस किताब के माध्यम से समझाए गए हैं। इस किताब के चलते हैं ना ही अपने शरीर से अवगत होते हैं पर यह भी समझ पाते हैं कि हम अपने आप में इतने बलवान कि अपने अंतर्मन को बदलने कि शक्ति रखते हैं। अतः हमारी ज्ञान में असली उपलब्धि होगी अपने आप को समझने, अपने शरीर कि गहरायिओं को जानना और अपने स्थूल शरीर कि आध्यात्मिकता को पहचानना।
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